चला एक दिन सवेरे सवेरे
बिना आँख खोले ही खोले
ना रास्ता ना मंजिल ही कोई
ना थी रोशनी ना आदमी ही कोई
पर चलता गया चलता गया
अपनी धुन में होकर सवार
जब मंजिल ना मिली
तो गया मैं हिम्मत हार
पर हिम्मत हार कर भी मैंने
हौसला ना छोड़ा
मंजिल थी दूर नहुत
पर मैं चलता ही चलता गया
चलते चलते सपने मे मैंने
एक इमारत थी पायी
पर जब आँख खुली तो सपना टूटा
हुई बहुत मायूसी क्योकि
जो इमारत सपने में मिली थी
वो हकीकत में रहने के काम ना आई
सपने तो सपने होते हैं यारो
ये बात समझ में मेरी आई
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1 comment:
bahut achhi rachna, padh kar dil khush ho gaya
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