Friday, January 29, 2010

ये आग वो आग है ज़ालिम

अपनों की कोई बात
दबी हुई जैसे कोई आग
एक ना एक दिन उभर आती है
ना चाह कर भी चिंगारी
शोला बन जाती है
जितना भुलाने की कोशिश करो
उतनी ही याद आती है
अपनों का गम क्या होता है
कोई हमदर्द ही समझ सकता है
क्योंकि आम आदमी तो हंसकर चल देता है
इस गम की दवाई
दुनिया के किसी बाज़ार में नही मिलती
और ये आग वो आग है ज़ालिम
जो जलाए नही जलती
और बुझाए नही बुझती

Wednesday, January 27, 2010

मेरी अपनी कहानी

सुनो मेरी अपनी कहानी
कुछ मेरी जुबानी कुछ औरों की जुबानी
सब रंग होकर भी बेरंगी सी लगी हमें जिंदगानी
कहने को अपनो का साथ मिला
और मिला गैरों से प्यार
इतना सब कुछ हो कर भी ना मिला
तो ऊपर वाले का हाथ
फूलों में रह कर भी कांटो का सहा हमने
हर गम को खुशी से गले लगाया हम ने
अपने छूटे रिश्ते टूटे पर हिम्मत ना हारी
कहने को तो बहुत था लेकिन थे अपने हाथ खाली
पढ़ लिख कर भी अनपढ़ कहलाये
जब दुनिया की समझ है हम को आयी
दुनिया का क्या है दुनिया का काम है कहना
मेरी मानो तो मस्ती में रहकर मस्ती से ही जीना

Tuesday, January 19, 2010

तुमने ना सुनी कोई बात मेरी

तुमने ना सुनी कोई बात मेरी
वरना बहुत कुछ बताना था तुम्हे
होठो से ना कह कर दिल से कहना था
तुम ने ना समझा कभी अपना हमें
वरना हर हाल दिल का सुनाना था तुम्हे
हम तड़पते रहें दिल का हाल कहने के लिए
तुम मिले एक बार और हंस के चल दिए