अपनों की कोई बात
दबी हुई जैसे कोई आग
एक ना एक दिन उभर आती है
ना चाह कर भी चिंगारी
शोला बन जाती है
जितना भुलाने की कोशिश करो
उतनी ही याद आती है
अपनों का गम क्या होता है
कोई हमदर्द ही समझ सकता है
क्योंकि आम आदमी तो हंसकर चल देता है
इस गम की दवाई
दुनिया के किसी बाज़ार में नही मिलती
और ये आग वो आग है ज़ालिम
जो जलाए नही जलती
और बुझाए नही बुझती
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3 comments:
bahut sundar kavita
Wah kyaa baat hai . Wonderful
Ek shaandaar aur jaandaar kavita. Is aag ko bujhne mat dena. Ye aag Kavita ki duniyaa me kaaphi kaam aati hai
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