Friday, January 29, 2010

ये आग वो आग है ज़ालिम

अपनों की कोई बात
दबी हुई जैसे कोई आग
एक ना एक दिन उभर आती है
ना चाह कर भी चिंगारी
शोला बन जाती है
जितना भुलाने की कोशिश करो
उतनी ही याद आती है
अपनों का गम क्या होता है
कोई हमदर्द ही समझ सकता है
क्योंकि आम आदमी तो हंसकर चल देता है
इस गम की दवाई
दुनिया के किसी बाज़ार में नही मिलती
और ये आग वो आग है ज़ालिम
जो जलाए नही जलती
और बुझाए नही बुझती

3 comments:

Anjali said...

bahut sundar kavita

Bhawna said...

Wah kyaa baat hai . Wonderful

krishan lal krishan said...

Ek shaandaar aur jaandaar kavita. Is aag ko bujhne mat dena. Ye aag Kavita ki duniyaa me kaaphi kaam aati hai